मंगलवार, 16 मई 2017

762 . भगवती सरस्वती के अनन्य उपासक महर्षि याज्ञवल्क्य।


                                ७६२
भगवती सरस्वती के अनन्य उपासक महर्षि याज्ञवल्क्य। 
महर्षि याज्ञवल्क्य की जन्म - भूमि मिथिला है। मिथिला के लोग प्रारम्भ से ही मातृभक्त थे। महर्षि याज्ञवल्क्य भी परम मातृभक्त थे। वे बाल्यावस्था में अपने शिक्षा - गुरु की आज्ञा का उल्लंघन किया करते थे। माता के सामने वह किसी को भी ऊँचा स्थान देना नहीं चाहते थे। माता की भक्ति में वे इस तरह लीन रहा करते थे कि गुरु के ज्ञान और गुरु के गौरव का उनके ह्रदय पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता था। इसलिए गुरुदेव ने उन्हें शाप दे दिया था कि 
' तूं मूर्ख ही रहेगा । ' इस शाप को छुड़ाने के लिए सिवा माता की शरण के उनके पास दूसरा कोई उपाय नहीं था। बालक जाए भी तो कहाँ ? दुःख हो या महा दुःख , माता के बिना रक्षक संसार में कौन है ?
                                  याज्ञवल्क्य ने माता की स्तुति की। मनसा वाचा कर्मणा उन्होंने जो स्तुति की , उस पर माता का ह्रदय द्रवित हो उठा।  याज्ञवल्क्य शाप से ही छुटकारा नहीं पाना चाहते थे , वे यह भी चाहते थे कि विद्वान बनकर रहें। इसलिए माता से उन्होंने यह भी प्रार्थना की कि ' मेरी बुद्धि निर्मल हो जाये , मैं विद्वान बनूँ। ' माता ने वैसा ही किया तथा बुद्धि - दात्री सरस्वती का रूप धारण कर  याज्ञवल्क्य को वैसा ही बनने  के लिए अपने आशीर्वाद दिए। माता एक ही है किन्तु अपने भक्तों यानी पुत्रों पर कृपा करने के समय जब जिस रूप में उसकी आवश्यकता होती है , वह उसी रूप में आकर रक्षा करती है। एक ही माता दूध पिलाते समय धायी का काम करती है , जन्म देने के समय जननी बन जाती है , मल - मूत्र साफ़ करने समय मेहतरानी बन जाती है , रोगी बनने पर वैद्य बन जाती है , सेवा - सुश्रुषा के समय दासी बन जाती है और न जाने अपने पुत्र के लिए वह क्या - क्या बन जाती है , इसे अनुभवी ही हृदयङ्गम कर सकता है।
महर्षि याज्ञवल्क्य को विद्वान बनना था , इसलिए माता ने सरस्वती का रूप धारण कर उनकी बुद्धि को , उनकी मेधा - शक्ति को और प्रतिभा को निर्मल बना दिया , वे संसार की सारी वस्तुएँ स्पष्ट देखने लगे।  स्तुति का प्रभाव ऐसा ही होता है।  
महर्षि याज्ञवल्क्य ने माता की ऐसी ही स्तुति की , जिससे वे प्रसन्न हो गई और वरदान दिया कि  ' तुम्हारी बुद्धि सूर्य की किरणों की तरह सर्वत्र प्रवेश करनेवाली होगी और जो कुछ अध्यन - मनन - चिंतन करोगे वह सब तुम्हे सदा - सर्वदा स्मरण रहेगा। ' यह है मातृ - भक्ति का प्रसाद। 
महर्षि याज्ञवल्क्य उसी समय से तीक्ष्ण बुद्धिवाले हो गए। उन्होंने जो कुछ भी लिखा , वह आज तक भारत में ही नहीं , भारत से बाहर भी आदर की दृष्टि से देखा जाता है। ' याज्ञवल्क्य स्मृति ' और उस का ' दाय भाग ' भारतीय कानून का एक महान अंश है। यह सब माता की कृपा का ही सुपरिणाम है। 
महर्षि याज्ञवल्क्य ने माता को सोते , जागते , उठते , बैठते - सदा - सर्वदा जो स्तुति की ,  प्रभावित होकर माता ने उनकी मूर्खता सदा के लिए दूर कर दी ; गुरु के शाप से छुड़ा दिया ; विद्या का अक्षय भंडार उनके सामने रख दिया। 
जिस स्तुति से महर्षि याज्ञवल्क्य ने माता की प्रार्थना की थी , उसे ' श्रीवाणी - स्तोत्रम ' ९ सरस्वती का महा - स्तोत्र ) कहा जाता है।  इस स्तोत्र में महर्षि याज्ञवल्क्य ने यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि ' मैं गुरु के शाप से पीड़ित हूँ। मुहे माता ही इस शाप से छुटकारा दिला सकती है। माता के गौरव का भी महर्षि याज्ञवल्क्य ने वर्णन किया है।  अन्त में स्तोत्र की महिमा भी बताई गयी है कि मुर्ख - से - मुर्ख व्यक्ति भी यदि एक वर्ष तक इस स्तोत्र का पाठ करे , तो वह मूर्खता से मुक्त हो सकता है। नित्य पाठ करनेवाला महा - दुर्बुद्धि और महा मुर्ख भी महा - पण्डित और मेधावी  हो जाएगा। 
यह स्तोत्र तंत्र - शास्त्र का एक अमूल्य रत्न है।  यदि इस स्तोत्र के विषय में यह कहा जाय कि यह महर्षि याज्ञवल्क्य का ' अनुभूत प्रयोग ; है तो अति - रञ्जित नहीं होगा। 
                            ' श्रीवाणी - स्तोत्रम '
कृपा कुरु जगन्मातर्मामेवं  हत - तेजसं। 
गुरु - शापात स्मृति - भ्रष्टं विद्या - हीनं च दुःखितं।।१ 
ज्ञानं देहि स्मृति विद्यां , शक्ति शिष्य - प्रबोधिनीम। 
ग्रन्थ - कर्तृत्व - शक्तिं च , सु - शिष्यं सु - प्रतिष्ठितम।।२ 
प्रतिभाँ सत - सभायां च , विचार - क्षमतां शुभाम। 
लुप्तं सर्वं देव - योगात नवी - भूतं पुनः कुरु।।३ 
यथांकुरं भस्मनि च , करोति देवता पुनः। 
ब्रह्म - स्वरूपा परमा , ज्योति - रूपा सनातनी।।४ 
सर्व - विद्याधि - देवि या , तस्यै वाण्यै नमो नमः। 
विसर्ग - विन्दु - मात्रासु , यादाधिष्ठानमेव च।.५ 
तदधिष्ठात्री या देवि , तस्यै नीत्यै नमो नमः। 
व्याख्या - स्वरूपा सा देवी , व्याख्याधिष्ठात्री - रूपिणी।।६ 
यया विना प्र - संख्या - वान , संख्या कर्तुं न शक्यते। 
काल - संख्या - स्वरूपा या , तस्यै देव्यै नमो नमः।।७
भ्रम - सिद्धान्त - रूपा या , तस्यै देव्यै नमो नमः। 
स्मृति - शक्ति - ज्ञान - शक्ति - बुद्धि - शक्ति - स्वरूपिणी।।८ 
प्रतिभा - कल्पना - शक्तिः , या च तस्यै नमो नमः। 
सनत - कुमारो ब्रह्माणंम , ज्ञानं प्रपच्छ यत्र वै।.९ 
बभूव मूक - वत्सोsपि , सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः। 
तदा जगाम भगवान , आत्मा श्रीकृष्ण ईश्वरः।।१० 
उवाच स च तां स्तौहि , वाणीमिष्टां प्रजा - पते। 
स च तुष्टाव तां ब्रह्मा , चाज्ञया परमात्मनः।।११ 
चकार तत - प्रसादेन , तदा सिद्धान्तमुत्तमम। 
तदाप्यनन्तं  प्रपच्छ , ज्ञानमेकं वसन्धरा।।१२ 
बभूव मूक - वत्सोsपि , सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः। 
तदा तां स च तुष्टाव , सन्त्रस्तो कश्यपाज्ञया।।१३ 
ततश्चकार  सिद्धान्तम , निर्मलं भ्रम - भंजनम। 
व्यासः पुराण - सूत्रं च , प्रपच्छ वाल्मीकि यदा।।१४ 
मौनी - भूतश्च संस्मार , तामेव जगदम्बिकाम। 
तदा चकार सिद्धान्तं , तद वरेण मुनीश्वरः।।१५ 
सम्प्राप्य निर्मलं ज्ञानम , भ्रमान्ध्य - ध्वंस - दीपकम। 
पुराण - सूत्रं श्रुत्वा च , व्यासं कृष्ण - कुलोदभवः।।१६ 
तां शिवां वेद - दध्यौ च , शत वर्षं च पुष्करे। 
तदा त्वत्तो वरं प्राप्य , सत - कवीन्द्रो बभूव ह।.१७ 
तदा वेद - विभागं च पुराणं च चकार सः। 
यदा महेन्द्रः प्रपच्छ तत्त्व - ज्ञानं सदा - शिवम्।।१८ 
क्षणं तामेव संचिन्त्य , तस्मै ज्ञानं ददौ विभुः। 
प्रपच्छ शब्द - शास्त्रं च महेन्द्रश्च वृहस्पतिम।। १९ 
दिव्यं वर्ष - सहस्त्रं च स त्वां दध्यौ च पुष्करे। 
तदा त्वत्तो वरं प्राप्य , दिव्य - वर्ष - सहस्त्रकम।।२० 
उवाच शब्द - शास्त्रं च तदर्थं च सुरेश्वरम। 
अध्यापिताश्च ये शिष्याः यैरधीतं मुनीश्वरैः।।२१ 
ते च तां परि - संचिन्त्य ,प्रवर्तन्ते सुरेश्वरोम। 
त्वं संस्तुता पूजिता च , मुनीन्द्रैः मनु - मानवै: २२ 
दैत्येन्द्रैश्च सुरैश्चापि , ब्रह्म - विष्णु - शिवादिभिः। 
जडी - भूतः सहस्त्रास्य: , पञ्च - वक्त्रश्चतुर्मुखः।।२३ 
यां स्तोतुं किमहं स्तौमि , तामेकास्येन मानवः। 
इत्युक्त्वा याग्वल्क्यश्च , भक्ति - नम्रात - कन्धरः।।२४ 
प्रणनाम निराहारो , रुरोद च मुहुर्मुहः। 
ज्योति - रूपा महा - माया , तेन द्रष्टापयुवाच तम।.२५ 
सा कवीन्द्रो भवेत्युक्त्वा , बैकुण्ठं च जगाम ह। 
 याज्ञवल्क्य - कृतं वाणी - स्तोत्रमेतत्तु यः पठेत।।२६ 
स कवीन्द्रो महा - वाग्मी , वृहस्पति - समो भवेत्। 
महा - मूर्खश्च दुर्बुद्धि , वर्षमेकं यदा पठेत।।२७ 
स पण्डितश्च मेधावी , सु - कवीन्द्रो भवेद ध्रुवम।२८
साभार ---बिहार में शक्ति - साधना       
अशुद्धि हेतु क्षमा प्रार्थी। 

शुक्रवार, 12 मई 2017

761 . बिहार में शक्ति साधक राजा निमि द्वारा भगवती जगदम्बा की प्रार्थना।


                                    ७६१
बिहार में शक्ति साधक राजा निमि द्वारा भगवती जगदम्बा की प्रार्थना। 
मिथिला की शक्ति उपासना का परम्परा हजार , दो हजार , दस बीस हजार वर्ष की नहीं , अपितु वैदिक काल के चतुर्युग ( सत्य , त्रेता , द्वापर , कलि ) के आदि सत्य युग के प्रारम्भ की है। 
चक्रवर्ती महाराज इच्छवाकु के बारहवें पुत्र राजा निमि परम सुन्दर , गुणी , धर्मज्ञ , लोक - हितेषी , सत्य -वादी  , ज्ञानी , बुद्धिमान , प्रजा - पालन में तत्पर थे। राजा निमि ने विशेष दान युक्त अनेक यज्ञ किये। गौतम आश्रम के निकट एक पुर बसाया। स्मरण रहे , यह गौतम आश्रम आज भी मिथिलाञ्चल में ही है। 
                                एक बार राजा निमि की इच्छा हुई की जगदम्बा प्रीत्यर्थ एक विशेष यज्ञ करूँ।  ऋषि महात्माओं के निर्देशानुसार यज्ञ - सामग्री एकत्र की गई।  भृगु , अंगिरा , वामदेव , गौतम , वसिष्ठ , पुलत्स्य , ऋचिक , क्रतु आदि मुनियों को निमंत्रण दिया गया। अपने कुल गुरु श्रोवशिष्ठ जी से राजा निमि ने विनय - पूर्वक निवेदन किया - गुरुदेव , यज्ञ - विशेष की सभी व्यवस्था हो गयी है। कृपया आप इस यज्ञ में जगदम्बा का साङ्गोपाङ्ग पूजन - विधान संपन्न करें। 
                                    श्री वशिष्ठ जी ने कहा - महाराज , जगदम्बा के प्रीत्यर्थ देव राज इन्द्र भी एक यज्ञ कर रहे हैं।  उसके लिए वे मुझे आपसे पूर्व ही निमंत्रण दे चुके हैं।  अतः मैं पहले उनका यज्ञ करा आता हूँ।  तब आप मुझे निमंत्रण देंगे , तो मैं आकर आपका भी यज्ञ करा दूंगा। 
                                 यह सुनकर राजा निमि ने कहा - मुनिवर , यज्ञ को तो मैं सारी तैयारी करवा चूका हूँ।  अनेक मुनि भी एकत्र हो चुके हैं।  ऐसी दशा में यह कैसे स्थगित हो सकता है। आप हमारे वंश के गुरु हैं। अतः हमारे यज्ञ में आपको रहना ही चाहिए। 
  किन्तु वशिष्ठ जी ने राजा निमि के अनुरोध को स्वीकार नहीं किया और इन्द्र का यज्ञ करने चले गए।  लाचार होकर राजा निमि गौतम को पुरोहित बनाकर यज्ञ करने लगे। कुछ दिनों के बाद वशिष्ठ जी उनके यहाँ आये। राजा निमि उस समय सो रहे थे। सेवकों ने उन्हें जगाना उचित नहीं समझा।  अतः राजा निमि वशिष्ठ जी दर्शनार्थ नहीं आ सके। मुनि वशिष्ठ ने इसे अपना अपमान समझा और उन्होंने क्रोध - भरे शब्दों में कहा - राजा निमि मुझ से रोके जाने पर भी आपने नहीं माना , दूसरे को पुरोहित बना आपने यज्ञ कर ही लिया और अब मेरे सम्मुख भी नहीं आते। अतः मैं आपको शाप देता हूँ कि आपका यह देह नष्ट हो जाय और आप विदेह हो जाएँ। 
शाप से घबराकर राजा के सेवकों ने राजा निमि को जगा दिया। राजा निमि भी शाप की बात सुनकर क्रुद्ध हो उठे और वशिष्ठ जी के सामने आकर कहा कि - आपने मुझे अकारण ही शाप दे दिया। कुल गुरु होकर भी आपने मेरे अनुरोध को नहीं माना और दूसरे का यज्ञ कराने चले गए।  लौटकर आने पर आपने यह भी विचार नहीं किया कि मैं निद्रित होने के कारण आपके दर्शनार्थ नहीं पहुँच सका और क्रोध में आकर अनुचित शाप दे बैठे। ब्राह्मणों को ऐसा क्रोध होना उचित नहीं है।  आपने मुझ निरपराध को शाप दिया है अतः मैं भी आपको शाप देता हूँ कि आपका यह क्रोध - युक्त देह नष्ट हो जाये। इस प्रकार राजा निमि और श्रीवशिष्ठ एक दूसरे के शाप से ट्रस्ट हो दुखी हो गए। 
                             वशिष्ठ जी अपने पिता ब्रह्मा की शरण में पहुंचे और सारी घटना का वर्णन करते हुए विनय की --- मेरा यह शरीर तो पतित होगा ही , अन्य शरीर धारण करने के लिए किनको पिता बनाऊं , जिससे देह मुझे पुनः प्राप्त हो और मेरा ज्ञान नष्ट न हो ?
             ब्रह्मा ने कहा - तुम मित्रा - वरुण के शरीर में प्रवेश कर स्थिर हो जाओ। वहां से तुम अयोनिज जन्म पाओगे , इसी देह के समान सब काम कर पाओगे और तुम्हारा यह ज्ञान भी नष्ट नहीं होगा। 
                     इधर राजा निमि का यज्ञ समाप्त नहीं हुआ था। शाप - वश उनके शरीर का पतन होने लगा। ऋत्विज ब्राह्मण राजा के किंचित श्वास - युक्त शरीर को चन्दनादि सुगन्धित वस्तु लेपन करते हुए मन्त्र - शक्ति से रोके रहे। यज्ञ समाप्ति होने पर देवताओं ने राजा से कहा - राजा निमि।  आपके यज्ञ से हम लोग बहुत प्रसन्न हैं , आप वर मांगें। देवता - मनुष्यादि जिस शरीर में आपको रूचि हो , वही शरीर हम आपको दे सकते हैं।  राजा निमि ने कहा - मैं इस शाप ग्रस्त देह में नहीं रहना चाहता। आप मुझे यह वर दें कि देह के न रहने पर भी मैं सदा बना रहूं। 
                               इस पर देवता बोले - आप जगदम्बा से प्रार्थना करें। वे इस यज्ञ से प्रसन्न हैं , अतः आपकी कामना अवश्य पूर्ण करेंगी। 
                    तब राजा निमि ने श्री जगदम्बा का ध्यान कर प्रार्थना की , जिस पर वे प्रकट हुई और बोली -- तुम्हारा अस्तित्व समस्त प्राणियों की पलक पर सदा बना रहेगा। तुम्हारे ही द्वारा प्रत्येक देहि पलक गिरा सकेगा। तुम्हारे निवास के कारण मनुष्य - पशु -पतंगादि भूत - गण स - निमिष कहलायेंगे और देवता अ - निमिष। 
                                उक्त वरदान के फल - स्वरुप राजा निमि की देह प्राण - शून्य हो गई। अराजकता के भय से वंश - रक्षा के निमित्त मुनियों ने अरणि ( अग्नि निकालने वाला काष्ट - यंत्र ) से मन्त्रों द्वारा उस देह का मन्थन किया , जिससे उस देह से एक पुत्र का जन्म हुआ। मन्थन द्वारा जनक ( पिता ) से उत्पन्न होने के कारण उसे मिथि और जनक नामों से पुकारा गया।  राजा निमि विदेह हो गए थे , अतः उनके वंशज भी विदेह कहलाये। इस प्रकार राजा निमि का उक्त पुत्र मिथि - जनक विदेह नामों से प्रसिद्ध हुआ।  इन्ही राजा मिथि द्वारा मिथिला नाम की पुरी स्थापित हुई और उसी पूरी के नाम पर मिथिला देश की प्रख्याति हुई। 

गुरुवार, 11 मई 2017

760 . जय देवि वर देह करह उधार। तोहहु कयल मात जगत विचार।।


                                     ७६०
जय देवि वर देह करह उधार। तोहहु कयल मात जगत विचार।। 
वाण खरग चक्र पात्र धर हाथ। चरम गदा धनु बिन्दु तुअ साथ।।
केसरि उपर छलि त्रिभुवन माता। सुर असुर नर जग्रहुक धाता।।
जगत चंदन भन आदि सूत्रधार।  शंभु सदाशिव करथु बिहार।।
जगतचन्द ( मैथिली नाटकक उदभव अओर विकास )

बुधवार, 10 मई 2017

759 . हेरह हरषि दुख हरह भवानी। तुअ पद शरण कए मने जानी।।


                                       ७५९ 
हेरह हरषि दुख हरह भवानी। तुअ पद शरण कए मने जानी।।
मोय अति दीन हीन मति देषि। कर करुणा देवि सकल उपेषि।।
कुतनय करय सकल अपराध। तैअओ जननिकर वेदन बाघ।।
प्रतापमल्ल कहए कर जोरी। आपद दूर कर करनाट किशोरी।।
                                                                       ( तत्रैव )

मंगलवार, 9 मई 2017

758 . किदहु करम मोर हीन रे माता जनि दुष रे धिया।


                                        758 . 
किदहु करम मोर हीन रे माता जनि दुष रे धिया। 
किदहु कुदिवस कए रखलादहु जनि मृग व्याधक फसिया।।
किदहु पुरुब कुकृत फल भुग्तल निकल भेल ते काजे। 
किदहु विधिवसे गिरिवर नन्दिनि भेलि हे विमुख आजे।।
                  प्रतापमल्ल ( मैथिली शैव साहित्य )

सोमवार, 8 मई 2017

757 . असि त्रिशूल गहि महिष विदारिणि। जंभाविनि जगतारण कारिणि।।


                                 ७५७
असि त्रिशूल गहि महिष विदारिणि। जंभाविनि जगतारण कारिणि।। 
ण्ड मुण्ड वध कय सुरकाजे।  शुम्भ निशुम्भ वधइते देवि छाजे।।
सकल देवगण निर्भय दाता। सिंह चढ़ लिखा फिर माता।।
बहुपतीन्द्र देव कएल प्रणामे। देवि प्रसादे पुरओ मोर कामे।।

रविवार, 7 मई 2017

756 . ई जग जलधि अपारे। तठि देवि मोहि कडहारे।।


                                    ७५६ 
ई जग जलधि अपारे। तठि देवि मोहि कडहारे।।
धन जन यौवन सबे गुन आगर नरपति तेजि चल काय।ई सब संगति दिन दुयि बाटल आटल बिछुड़िअ जाय।।
जे किछु बुझि सार कए लेखल देखल सकल असारे। 
इन्द्रजाल जनि जगत सोहावन त्रिभुवन जत अधिकारे।।
तुअ परसादे साथ सभ पूरत दुर जायत दुख भाले। 
से मोय जानि शरण अवलम्बन सायद होयत संतारे।।
भूपतीन्द्र नृप निज मति एहो भन ई मोर सकल विचारे।देवि जननि पद पंकज भल्ल्हु  तेजि निखिल परिवारे।।
                                      ( मैथिली शैव साहित्य ) 

शनिवार, 6 मई 2017

755 . जय - जय दामिनि देवि भवानी। करह कृपा मोहि निय सुत जानी।


                                       ७५५ 
जय - जय दामिनि देवि भवानी। करह कृपा मोहि निय सुत जानी। 
मन कय दीप ज्योति कय ज्ञान। आरतिकरन सहस्त्र दले मान।।
आनन्द गोघृत मन कय भावे। नृप भूपतीन्द्र मल्ल भने गुणिगावे।।
                                                 ( मैथिली शैव साहित्य )

शुक्रवार, 5 मई 2017

754 . हे देवि शरण राख भवानि।


                                    ७५४ 
हे देवि शरण राख भवानि। 
मन वच करम करओ सान किछु से सवे तुअ पद जानि।।
हमे अति दीन खीन तुअ सेवा राखह निय जन जानि।।
अविनय मोर अपराध सम्भव मन जनु राखह आनि। 
अओर इतर जन जग जत से सवे गुण रसमय से वानि।।
तुअ पदकमल भमर मोर मानस जनमे जनमे एहो भानि। 
भूपतीन्द्र नृप एहो रस गावे जय गिरिजापति बानि।।
भूपतीन्द्रमल्ल  ( हिस्ट्री ऑफ़ मैथिली लिटरेचर )

गुरुवार, 4 मई 2017

753 . जय हिमालय नन्दनी।


                                      ७५३ 
जय हिमालय नन्दनी। 
हरक धरनि तोहे देवि गोसाउनि। चौदह भुवनक रानी। 
विष्णुक घर तोहे कमला सुन्दरि ब्रह्मा घर तोहे वानी।।
जत किछु जगत तोहर थिक विलसित तुअ गुण अपरूब भाँति। 
कहुखने बाला कहुखने तरुणी कहुखने अपरूब कांति। 
                                    ( मैथिली शैव साहित्य )

बुधवार, 3 मई 2017

752 . जय जय शंकरि शकर जाये। थिति कृति संहति कारिणि माये।


                                   ७५२
जय जय शंकरि शकर जाये। थिति कृति संहति कारिणि माये। 
जलद कतक शशि रूचि सम देहा। त्रिगुण विधायिनी त्रिगुण सिनेहा।।
हरि विधि वासव दिनपति चंद। तुअ पद पंकज के नहि दन्द।।
मल्ल अमित जित भूपति वाणी। पुरथु मनोरथ शम्भु भवानी।।
                                            ( मैथिली शैव साहित्य )

मंगलवार, 2 मई 2017

751 . नमो मृडानी गिरितनया।


                                     ७५१ 
नमो मृडानी गिरितनया। 
सुरजन ईश सकल जन पूजित पद सरोज सदय हृदया। 
देवि भवानीणि सुराधिप माया त्रिभुवन परिणि जलधि निलया।।
कण्ठ विराजित हाल फणमणि चौसठि पीठ महविजया। 
डिम डिम डिम डमरुक राविनि। 
कुट कुट कटक चारु चालिणि।
धयि धयि धयिअ बाज मृदङ्गिनि। 
धूमि धूमि धिमि मोद मोहिणि।।
देवि महेशरि मोहि निहारह शंकर ह्रदय सायानी। 
मल्ल जितामित्र भूपति वाणी पुरह मनोरथ हमर भवानी। 
जितामित्रमल्ल ( मैथिली शैव साहित्य )

सोमवार, 1 मई 2017

750 . भज मन जगजननी भव भाविनी।


                                       ७५०
भज मन जगजननी भव भाविनी। 
यो किछु कोयि करजन मानसा भरण पुरण करतारिणि। शिर पर चन्द्र मुकुट विराजे मुख वेसरि सोहे। 
सोहे तिलक पटम्बर कुण्डल देखि महेशर मोहे।।
                                                     ( तत्रैव )