रविवार, 9 अप्रैल 2017

729 . जननी ! लिअ आब सुधि मोर।


                                     ७२९
जननी ! लिअ आब सुधि मोर। 
पामर दीन विहीन ज्ञान हम जानि न महिमा तोर।।
यौवन मद मे मक्त छलहुँ मा ! वनिता भोग विभोर। 
हिंसा क्रोध प्रलोभक वस मे कैल स्मरण नहि तोर।।
यमक बराहिल जरा पकड़लक अपना तन नहि जोर। 
" काञ्चिनाथ " अगति मे करइत छी मा ! मा ! मा !सोर।।
                                  " काञ्चिनाथ " झा ' किरण ' 

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