सोमवार, 26 सितंबर 2016

597 .श्रीशंकरि


                                     ५९७ 
                                 श्रीशंकरि 
जय जय शंकरि। सहज शुभंकरि। समर भयंकरि श्यामा।
बाउरि वेश केश शिर फूजल शववाहिनि हर वामा।।
वसन विहीन छीन छवि लहलह रसन दशन विकराला। 
कटि किंकणि शव - कुण्डल मण्डित उर पर मुण्डक माला।
श्रुक बह लिधुर धार धरणी धर धरणीधर सम बाढ़ी। 
खलखल हास पास दुइ जोगिनि वाम दहिन भए ठाढ़ी।।
कट कट कए कत असुर संहारल काटि काटि कैल ढ़ेरी। 
घट घट लिधुर धार कत पिउलि मगमातलि फेरि फेरि।।
विकट स्वरुप काल देखि कांपथि की पुनि असुर बेचारे। 
तुअ पद प्रेम नम जेहि अन्तर ताहि अमिअ रस सारे।।
जीवदत्त भन शिव सनकादिक सभक शरण एक तोही। 
निर अवलम्ब जानि करुणामयि ! करिअ कृतारथ मोही।।
( मैथिलि गीत रत्नावली ) जीवदत्त    

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