शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

517 . द्वेष

५१७ 
द्वेष 
द्वेष एक विकारी तत्व  
षठ रिपु का साथी 
एक विध्वंशकारी भावना 
आत्मिक उन्नति के पथ का काँटा 
दुखानुभूति के बाद आनेवाला 
राग का सहचर है यह 
करुआहट , निराशा , भ्रम , दुःख का 
उपज है यह 
इसका पोषक तत्व अहंकार ही है 
विकृत भावना का ही एक पहलु है यह 
द्वेष एक सर्वव्यापक सार्वभौमिक 
बीमारी का नाम है 
बून्द - बून्द कर जब यह कहीं जमा होता 
युद्ध लाता हिंसा फैलाता 
उत्पन्न करता अशांति
घृणा , पूर्वाग्रह , ईर्ष्या 
गलत धारणा आधारित 
व्यंग करना छेड़ना 
दूसरे के बारे में बुरी बातें कहना 
और करना निंदा 
और भी अनेक रूप हैं 
इसके अभिव्यक्ति के 
मनुष्य जाति का सनातन गुण 
ये समूल से नष्ट हो नहीं सकता 
हाँ हमें रूपांतरण कर 
अपना कल्याण कर सकते 
इसके फल में स्वाद में 
ला सकते हैं परिवर्तन 
दबाने की कोशिश व्यर्थ 
और तेजी से उभरेगा 
हाँ हमें इसका ऋर्णात्मक पहलु छोड़ देना है 
घनात्मक रूप को अपनाना है 
रुख इसका आध्यात्मिकता की ओर 
मोड़ देना है
द्वेषी नहीं द्वेष से बचना है 
इसके विघटनकारी रूप से बचना है 
अज्ञानी से द्वेष करना व्यर्थ है 
द्वेष करना है अज्ञान से 
बीमार से कैसा द्वेष ?
बीमारी से करना है द्वेष 
द्वेष के हर उस रूप का रुख 
हमें मोड़ देना है 
जो हमें माँ तक पहुँचने में 
बाधा पहुंचाए 
द्वेष हमें अपने अवचेतन के 
उस द्वेष से करना है 
जो हमें उकसाता है 
औरों के धर्म से द्वेष करना 
द्वेष हमें अपने मन की 
उस भावना से करना है 
जो हमें अपने विचारों से 
मेल नहीं खाने वाले के विचारों से 
द्वेष करने को उकसाता है 
ऐसे द्वेषों से द्वेष करने की 
कला हमें अपने अभ्यंतर में 
विकसित करनी होगी 
नास्तिक द्वेष खुद को तो 
हानि पहुंचाता ही है
समाज और देश का भी अहित 
करता है 
हमें अपने स्वरुप से दूर 
अपनी आराध्या 
माँ भगवती से दूर करता है 
माँ जगत जननी का 
सामिप्य पाना है तो 
द्वेष को रूपांतरित करना होगा 
माँ की भक्ति करने के लिए 
दूर होना होगा 
हमें अपने मन की इस बीमारी से 
द्वेष का रूप परिवर्तन कर 
माँ से अटूट प्रेम करना होगा हमें 
अपने आत्मा को इस प्रबल शत्रु से 
बचाना होगा हमें 
दूसरे से द्वेष कर 
हम खुद से द्वेष करने लगते हैं 
अपने भक्ति से द्वेष करने लगते हैं 
माँ से द्वेष करने लगते हैं 
अपने प्रगति से द्वेष करने लगते हैं 
तात्पर्य यह 
औरों से द्वेष कर 
खुद की हानि करते हैं 
दूसरों के प्रगति से द्वेष कर 
खुद के लिए भावी संकट का 
बीजारोपण कर लेते हैं 
द्वेष के रूपांतरण में बस 
माँ ही एक सहायिका है 
करनी है उसकी प्रार्थना 
करनी है भक्ति उसकी 
अज्ञानी शिशु की तरह 
कर जप उसका 
अपने आप को पूर्ण समर्पित 
करना होगा 
तभी हम अपने द्वेषों से मुक्त 
परम गति को पाने में समर्थ 
हो सकते हैं 
माँ की अनुकम्पा पा सकते हैं 
द्वेष से मुक्त हो सकते हैं ! 

सुधीर कुमार ' सवेरा '

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