रविवार, 16 नवंबर 2014

331 .बहुत दिनों के बाद

३३१ 
बहुत दिनों के बाद 
तुम्हे देखा 
तेरी पहचान 
और उसका अंतराल 
मेरे जिज्ञासा को 
मेरे अनुमानित विचारों को 
जैसा 
मैंने समझ रखा था 
यह तो 
मैदान की गलती थी 
ऐसा ही क्यों उसने समझ रखा था 
केवल पानी ही आयेगा 
और कुछ नहीं 
सो मैं 
समझ न पाया 
वो तुम हो 
हाँ वही नाम 
वही रूप रंग 
आवाज भी वही 
फिर भी 
कुछ ऐसा 
जिसे सिर्फ 
मेरा 
अंतःस्थल 
समझ रहा था
वो तुम में 
कुछ 
शायद खो गया था 
पर तुमने जिसे 
अपनी पदोन्नति समझकर 
अपने 
अंकों में 
भर लिया था 
मैं फिर 
नए सिरे से 
तुम्हे 
जानना चाहता हूँ 
मेरी हर बात पे 
अब तुम 
हंसा करते हो 
पहले ऐसा नहीं था 
तब तुम 
बड़े मनोयोग से 
सुना करते थे 
तेरी उम्र शायद 
मुझसे बहुत कम है 
पर तेरी हंसी 
काफी अनुभव लिए है 
मैं सत्य को पाकर भी 
काफी सोंचता हूँ 
असत्य का मुलम्मा 
तेरे पहचान को 
मुझसे जुदा कर रहा है 
पर मैं खुश हूँ 
तुम्हे विचारों के बिना 
जीना आ गया है !  

सुधीर कुमार ' सवेरा ' २८ - ०४ - १९८४ 
कोलकाता ११ -३२ am 

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