रविवार, 30 नवंबर 2014

346 .जिसे तूने

३४६ 
जिसे तूने 
निष्प्राण और निर्जीव समझ 
गूंगा और बहरा समझ लिया 
विश्व का 
वो कुचला दलित 
ईंट और गारा बन 
एक दीवाल हो गया 
हाँ बस वो खड़ा है 
शायद उसे 
आत्म चिंतन का 
मौका मिल गया है 
या हो सकता है 
अपने अस्तित्व पर 
शोध कर रहा हो 
या तपस्या में तल्लीन हो 
मौन धारण कर लिया हो 
हो सकता है 
इन शोरों में 
उलझना न चाहकर 
दम साध लिया हो 
या अपने क्रांति का 
मार्गदर्शक मानचित्र 
तैयार कर रहा हो 
निर्मेश नेत्रों से 
तुम्हारे बाल सुलभ क्रीड़ा को 
देख - देख 
तेरे नादानी को समझ 
बस चुप है और शांत 
वो जानता है 
इस भगदड़ में 
क्या बोलना ?
बस दो कदम और 
फिर सब शांत 
दिन को दीवाल बन 
बस तेरे बातों को 
सुनता है 
रात को तेरे मष्तिष्क के 
अल्ट्रावॉयलेट किरणों को 
चमगादड़ बन 
देखता है 
तुम्हारी सारी पहुँच 
तेरी सारी अक्ल 
हर उपायों के बावजूद 
निरर्थक साबित होती है 
और दीवाल को 
आँखों से बचकर 
तुम कुछ नहीं कर पाते 
तुम माइक्रोवेब से बोलो 
या मेगावेब से बोलो 
दीवाल सुनही लेगा 
तुम अल्ट्रावायलेट 
या इन्फ्रा किरणों को फेंको 
चमगादड़ देख ही लेगा !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०२ - ०६ - १९८४ रांची 
३ - ३६ pm 

शनिवार, 29 नवंबर 2014

345 .जिंदगी को

३४५ 
जिंदगी को 
ना जाने 
क्या समझकर 
फुसला रहा हूँ 
बहला - बहला कर 
मेरा असत्य जो कुछ न था 
मुझे पीछे धकेलता है 
मेरा सत्य 
मुझे नोचता खसोटता है 
दिल में 
हर को चाहने का 
बस एक दर्द भर उभरता है 
खाली - खाली उसूल 
खाली - खाली सिद्धांत 
मेरा बीता कल 
आज को घसीटता है 
मैं चाहता हूँ ढूँढना 
अपने उत्पत्ति का कारण 
मेरा मस्तिष्क लहूलुहान हो जाता है 
अपने पूर्वजों से टकरा - टकरा कर 
मुझे बुद्धि का एहसास 
मेरे लिए एक हादसा 
ईश्वर बना मेरे लिए उपहास 
मैं अपनी भावना और एहसास को 
खोना चाहता हूँ 
वंचित होना चाहता हूँ 
मन और बुद्धि से 
हाय ! जग में कोई नहीं 
जिसे मानू मैं दिल से !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०२ - ०६ - १९८४ राँची 
३ - २० pm 

344 .मेरे वक्त यूँ गुजर रहे

३४४ 
मेरे वक्त यूँ गुजर रहे 
गोया मैं कोई गुजरा हुआ वक्त होऊं 
हर लम्हा मेरे 
यूँ कट रहे 
जैसे सूखे पेड़ों की 
कटती हुई डाल हूँ 
भविष्य का अँधेरा 
मुझे आँख भी नहीं 
खोलने दे रहा 
मेरी हर कामना 
धरातल पर आने से पहले ही 
टूटे हुए तारों की तरह 
लुप्त हो जाती है 
मेरी अभिलाषा के फूल 
खिलने से पहले ही 
मरुभूमि में शहादत को पा जाते 
मेरी हर आकांक्षा 
अतृप्त ही रह जाती है 
मैं अपने को 
सत्य - असत्य के पलड़े पर 
असंतुलित रूप में 
जीवन में काँटे को 
दोलायमान पाता हूँ 
और मेरी अनकही कहानी 
कहासुनी के पृष्टभूमि पर ही 
चिपकी हुई रह जाती है !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३१ - ०५ - १९८४ राँची 
१२ -२० pm 

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

343 .एक समय था

३४३ 
एक समय था 
जब वो बच्ची थी 
बच्चों जैसी 
उसकी हरकतें थी 
जी भरकर मुझसे 
लड़ती थी 
ऐसी बात नहीं 
की वो मुझे नहीं चाहती थी 
पर मैं 
उस वक्त 
अपने को 
बड़ा और समझदार समझ 
ज्यादा करीब 
उसे आने न दिया 
और आज 
मैं बच्चा हो गया हूँ 
मेरी हरकतों को 
वो बचपना समझती है 
और बड़ो की तरह 
मुझसे व्यवहार करती है 
दुनियाँ वो मुझे सिखाती है 
चूँकि मैं अब तक कुँवारा हूँ 
वो तीन बच्चों की माँ है 
मुझे भी बच्चा समझ 
बड़ों की तरह 
मुझ पर अधिकार जताती है !


सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३१ -०५ - १९८४ राँची 
१० - ४५ am 

342 .अलग - अलग रंगों में

३४२ 
अलग - अलग रंगों में 
अलग - अलग चेहरे 
बेमुरव्वत से
दीवालों से हैं चिपके 
बेसुध बेचारी दीवालें 
सबके भेद को जाने 
वो चीखती है 
रात के अँधेरे में 
अपने नगरवासियों पर 
उनके भाग्य पर 
कभी रोती हैं 
कभी विद्रूप सी हँसी हँसती है 
वो नकाब उलटाकर 
लोगों को परिचय देती हैं 
सबके लिखे वादों को 
चुटकुले सा सुनाती है 
फिर दीवालें 
गम में डूब जाती हैं 
हर बार के 
बलात्कार से 
अब वो ऊब चुकी है 
हाय रे उसकी मज़बूरी 
ढहाना चाहकर भी 
ढाह नहीं पाती है 
रातों के सन्नाटे में 
एक सर्द आह ही 
भरकर रह जाती है 
वो क्या नहीं जानती है 
त्रिकालदर्शी है 
उसके सगे सम्बन्धी 
कहाँ नहीं हैं 
मानव के 
मानवीय ज्ञान के उद्भव से ही 
वो मानव को 
पहचानती आ रही है 
वो यह कभी नहीं कहती 
मुझ पर लगे मुखौटे को 
तुम अपना लो 
और अपना 
भाग्य विधाता बना लो 
हर बार वो कहती है 
मुझ पर लगे 
इन चेहरों को 
गौर से देखो 
तुम सबों से 
मैं इसे अलग करना चाहता हूँ 
हर बार वो कहती है 
ये चेहरे 
उदविलाव हैं गिरगिट हैं 
सियार हैं 
बच निकलो तुम इनसे 
यही इनकी पहचान है 
पर हाय रे !गूंगा , बहरा , अँधा मानव 
अपने ही हाथों से 
अपने पैरों में बेड़ियां डाल रहा है !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३१ - ०५ - १९८४ रांची 
१० - २० am   

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

341 .खुशनसीब हर वो दिन

३४१ 
खुशनसीब हर वो दिन 
साथ जब गुजरे 
नेक दिल के साथ 
छूटे हंसी  फव्वारे 
भेद न हो कोई दिल में पास 
कहीं भी दिल में  
किसी के 
कोई भेद भाव न था 
साथ जो गुजरी उन सबों के साथ 
चक्रव्यूह में हम हैं  
चक्रव्यूह के पार 
जानकर सब कुछ 
हर एहसास के पार हैं 
चाहते नहीं चक्रव्यूह में फंसना 
पाते खुद को चक्रव्यूह के साथ हैं 
लगने लगता है 
चक्रव्यूह में सब अपना 
जब याद नहीं रहता खुद का 
जगने के बाद 
हो जाता है पराया हर सपना 
हर निर्णय मुस्कुराता है 
निर्णय लेने के बाद 
चक्रव्यूह से बाहर हो जाने के बाद 
चकव्यूह रह जाता है बरक़रार 
मानवता के तराजू पर 
विहंस रही है क्रूरता और हैवानियत 
कांटे के बीच में खड़ा 
मुस्कुरा रहा है 
मानव की नपुंसकता !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' २९ - ०५ - १९८४ राँची 
११ - ३० am 

बुधवार, 26 नवंबर 2014

340 .कविता में जिंदगी का अर्थ ढूंढ रहा था

३४० 
कविता में जिंदगी का अर्थ ढूंढ रहा था 
मौत का पंजा बाहर निकला नजर आया 
समुन्दर से भी गहरे प्यार की तमन्ना में 
रेत का दरिया बहता नजर आया 
झुलसी अधजली 
मेरे अरमानो की चिता पर 
उनका आलिशान महल खड़ा नजर आया 
मेरे वफ़ा को ज़माने ने नादानी कही 
प्यार में उनके पागल हुआ तो हँसता चेहरा उनका 
नजर आया 
लोगो ने कहा कहाँ फंस गए हो 
हर मोड़ पे उनका छलिया चितवन नजर आया !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' २२ - ०५ - १९८४ कोलकाता 
९ - ५५ pm 

मंगलवार, 25 नवंबर 2014

339 .प्यार में लूटना ही पड़ता है

३३९ 
प्यार में लूटना ही पड़ता है 
मैं लूट चुका हूँ 
प्यार में बर्बाद होना पड़ता है 
बर्बाद मैं हो चूका हूँ 
प्यार में मिटना ही पड़ता है 
मिट रहा हूँ 
तिल - तिल कर जलना पड़ता है 
जल रहा हूँ 
बदनामी का सेहरा भी माथे पे आ लगता है
पर प्यार होकर ऐसा 
कोई न हो बेवफा 
जान ले ले 
पर जुदा न हो 
हर सितम करे 
पर बेवफा न हो !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' २२ - ०५ - १९८४ 
कोलकाता ८ - ४५ am  

शनिवार, 22 नवंबर 2014

338 .रास्ता और लगन

३३८ 
रास्ता और लगन 
गर जो हो सही 
हर मंजिल 
स्वयं पास चली आती 
वो मेरे 
एथेंस के सत्यार्थी 
अधूरे सत्य के दर्शनकर्ता 
तुझसे भूल अब हुई 
जो तूने इतने पे ही 
निचोड़ निकाल लिया 
अभी सत्य पका कहाँ था 
जो तूने 
स्वाद चखने का 
दावा कर लिया 
तुमने जाना ही था गलत
आशा तुम्हारी गलत थी 
प्रयास और विश्वास 
दोनों तुम्हारे सही हैं 
वीरानी कह कर 
जिससे तूँ रुष्ट हुई 
वो तो तेरे ही 
प्रयासों की 
तुष्टि थी 
सर्वप्रथम अपने 
कर्म और उसके फल को 
सही प्रभाषित करो 
फिर सत्य को पकड़ो 
या हारे हुए जुआरी की तरह 
आम मुखौटों में 
अपना मुखौटा छुपा लो !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

337 .हम कहते हैं

३३७ 
हम कहते हैं 
हम सुनते हैं 
हम लिखते हैं 
फिर ढेर सारे पुरुस्कार 
हमारे मुंह पर आ लगते हैं 
क्या तुमने सोंचा कभी 
तुम्हारे लिखने का 
तात्त्पर्य   
सिर्फ पुरुस्कार था
तुम्हारे सत्य की कीमत 
मात्र चाँदी के चंद सिक्के थे 
तुम्हारे सत्य के 
साक्षात्कार का 
सिर्फ इतना ही मोल था 
तुम्हारा सत्य 
ऐसे पुरुस्कारों के लिए 
न था 
वो भी वैसे से 
जिसने तेरे सत्य को 
जाना तक नहीं 
इतिहास गवाह है 
आज तक के सच्चे ज्ञानी 
पुरुस्कार विहीन रहे 
तुझे तेरे 
क्षुद्र शाब्दिक ज्ञान पर ही 
तुम्हे कैद कर दिया जाता है 
और तुम अपनी 
स्वतंत्रता के देवी के पाँव में 
खुद बेड़ियां डाल कर 
उसके प्रहरी बन जाते हो 
इस तरह मानवता के दीप 
हर बार 
पूर्ण आलोकित होने से 
पहले ही बुझ जाता है 
इस तरह 
हर भागिरथ प्रयत्न के बाद 
हम बाधित दीवालों के 
मुंडेर तक पहुँच कर 
पुनः उसी अंध कूप में 
आ गिरते हैं !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०५ - ०५ - १९८४ 
२ - ०० pm  

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

336 .तुम संतुष्टि

३३६ 
तुम संतुष्टि 
अंदर में चाहते हो 
और बाह्य दृष्टि से 
अपने को 
अलग नहीं कर पाते 
हमारा मूल 
जिसकी हमें तलाश है 
हम सर पीटते हैं 
और भटकते हैं 
भौतिकता से 
हम खुद को 
अलग नहीं कर पाते 
परिणाम 
अन्तः जिसे चाहा न था 
पाकर भी वो रोयेगा 
और आध्यात्मिकता 
जो जीवन की दवा है 
दूर उससे भागते हैं 
फिर कैसे भला 
हम आशा करें 
कष्ट हमारे दूर होंगे 
हर पल 
एक नया जख्म 
ले लेते हैं 
पुराने जख्मो के 
भरने के प्रयास में 
खुद को खुद से 
दूर कर लेते हैं 
खुद के पास आने में 
जिनसे मानवता कराहती है 
समाज में जो दुःशासन हैं 
उन्हें ही हम 
जिरहबख्तर मुहैया कर 
मजबूत बना रहे हैं 
इस तरह शैतान को 
दिनों दिन बलशाली बनाकर 
उसकी पूजा कर रहे हैं !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०८ - ०५ - १९८४ 
४ - ०० pm 

बुधवार, 19 नवंबर 2014

335 .तुम और तुम्हारा समाज

३३५ 
तुम और तुम्हारा समाज 
ग्रसित है अमानवीय रोगों से 
तुम्हारे मनीषी 
जो उपचार बतलाते हैं 
वो रोग की भयंकरता 
बढाती है 
आग के शांति का उपाय 
घी नहीं होता 
शांति के हेतु 
अशांति कभी साधन नहीं हो सकता 
पर हम अपनी 
बुद्धि को 
कुंठित कर 
हर बार 
एक नया विष 
पैदा कर 
उसे ही अमृत कह 
ऊँचे कीमतों में बेचते हैं 
कोई और नहीं 
हमारे रोने का कारण 
हम खुद हैं 
वर्तमान में 
मानव 
बहुत शक्तिशाली है 
मानवता फिर भी 
रोती है 
आखिर ऐसा क्या है 
जो हमारे सही 
ज्ञान को भी 
ग्रस लेता है
क्यों न हम 
उसे ही ग्रस लें !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०८ - ०५ - १९८४ 
२ - ०० pm  

334 .मुझे मौत

३३४ 
मुझे मौत 
गर हो देना 
दे दो मुझको 
शान्त्वना विहीन शब्द 
गर जो 
जिंदगी हो देना 
दे दो मुझको 
शान्त्वना के दो शब्द !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  

सोमवार, 17 नवंबर 2014

333 .दर्द में डूबी शाम है मेरी

३३३ 
दर्द में डूबी शाम है मेरी 
गर्द में डूबा नाम 
नाम तेरा ले - ले के हम तो 
प्यार में हुए बदनाम 
मन मंदिर में 
तुझको बिठाकर 
कुचल गए मेरे 
सारे अरमान 
तुम जो न होते 
यार मेरे तो 
अपना होता 
ऊँचा नाम 
वफ़ा करके तुझसे हम 
होते न यूँ बर्बाद सनम 
करके मोहब्बत 
तुझसे हमने 
क्या - क्या न 
जुल्म सहे 
दिल भी टुटा 
आश भी छूटी 
दर्द की ऐसी 
बांध जो टूटी 
बिखर गया तिनका - तिनका 
आदर्शों के मेरे 
जो तूने महल तोड़ी 
दर्द में डूबी शाम है मेरी 
गर्द में डूबा नाम 
नाम तेरा ले - ले के हम तो 
प्यार में हुए बदनाम !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३० - ०४ - १९८४ 
कोलकाता २ - १० pm 

रविवार, 16 नवंबर 2014

332 .सर्द हवा के झोंके से

३३२ 
सर्द हवा के झोंके से 
तुम क्यों ऐसे मिले 
मैं तो गीली मिट्टी था 
तुमने जैसे चाहा 
सांचे गढ़े 
ख़ुदपरस्ती की दुनियाँ में 
खुदगर्ज क्या तुम मिले 
कोरा कागज था मैं 
जैसे चाहे तुमने रंग भरे  
मेरा सूना 
आकाश चुनकर 
मनमाने सितारे भरे 
तुम जब थे मिले 
सूना मेरा आँगन था 
विस्तृत थे मेरे विचार 
पर जान सका न 
तेरा ये 
अव्यवहृत व्यवहार 
खामोश सर्द मैं 
गर्म मेरी आह 
ईश्वर करे 
बचा ले तुम्हे 
बस इतनी सी है 
मेरी चाह 
हाँ जानता हूँ मैं 
तुम मेरे 
सपनो और यादों के कमरे में 
आया करोगे 
जी भर मुझे सताया करोगे !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ३० - ०४ - १९८४ 
११ - ३० am 

331 .बहुत दिनों के बाद

३३१ 
बहुत दिनों के बाद 
तुम्हे देखा 
तेरी पहचान 
और उसका अंतराल 
मेरे जिज्ञासा को 
मेरे अनुमानित विचारों को 
जैसा 
मैंने समझ रखा था 
यह तो 
मैदान की गलती थी 
ऐसा ही क्यों उसने समझ रखा था 
केवल पानी ही आयेगा 
और कुछ नहीं 
सो मैं 
समझ न पाया 
वो तुम हो 
हाँ वही नाम 
वही रूप रंग 
आवाज भी वही 
फिर भी 
कुछ ऐसा 
जिसे सिर्फ 
मेरा 
अंतःस्थल 
समझ रहा था
वो तुम में 
कुछ 
शायद खो गया था 
पर तुमने जिसे 
अपनी पदोन्नति समझकर 
अपने 
अंकों में 
भर लिया था 
मैं फिर 
नए सिरे से 
तुम्हे 
जानना चाहता हूँ 
मेरी हर बात पे 
अब तुम 
हंसा करते हो 
पहले ऐसा नहीं था 
तब तुम 
बड़े मनोयोग से 
सुना करते थे 
तेरी उम्र शायद 
मुझसे बहुत कम है 
पर तेरी हंसी 
काफी अनुभव लिए है 
मैं सत्य को पाकर भी 
काफी सोंचता हूँ 
असत्य का मुलम्मा 
तेरे पहचान को 
मुझसे जुदा कर रहा है 
पर मैं खुश हूँ 
तुम्हे विचारों के बिना 
जीना आ गया है !  

सुधीर कुमार ' सवेरा ' २८ - ०४ - १९८४ 
कोलकाता ११ -३२ am 

शनिवार, 15 नवंबर 2014

330 . बंद जिसके अक्ल के दरवाजे

३३० 
बंद जिसके अक्ल के दरवाजे 
अर्थों के जो भेद न जाने 
अकड़ा बैठा कुर्सी पे बड़े 
कहीं आज प्रकाशक हैं कहलाते 
नैनों को आच्छादित किये 
अक्षरों के विशालन के लिए 
फिर भी वो 
सूक्ष्मत्तर भेद को न जान पाये 
गर्दन में लगे 
फांसी के गांठ को 
उठकर लूज करते हुए 
पटक रचनाओं को 
औरों के सिर पर 
कहते हैं  क्या बकवास लिखा है 
प्रेषक के डिग्री पढ़ 
रचनाओं को समझता 
सारगर्वित शब्दों को 
बकवास समझता 
छेड़खानी को बलात्कार कहता 
मारपीट को जातीय दंगा कहता 
खुद हुस्न और दौलत की 
आग में जलता रहता 
निर्दोष कलमों की 
भाषा न समझ पाता 
समाज देश , व्यक्ति के
जीवन का अर्थ न समझता 
निर्दोष व्याधि रही रचनाओं  में 
आज का प्रकाशक 
शब्दों का अर्थ हाथों से टटोलता !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  

329 .चंद गोल चिपटे

३२९ 
चंद गोल चिपटे 
खरे आरे तिरछे 
अभिव्यक्ति की रेखा चित्रें 
अव्यवस्थित उटपटांग 
फैले बेतरतीब जाले 
भय , हास्य , करुण , त्रास 
चारों ओर के विम्बित छाये 
भीतर गहरे पैठ कर 
दूर - दूर अँधेरे में जाकर 
लाते जो ढँक - ढँक 
फैलाते अपनों जख्मो से 
सुरभित सौम्य सुगंध 
जख्मो को खरीद - खरीद 
लहुओं को बेच - बेच 
दिल को कुरेद - कुरेद 
अपने को बार - बार छल 
देता जो अर्थ अनेक 
समझा जीवन के अर्थ अनेक 
सांसे जिसकी घुटती रहती 
पल - पल जी - जी कर 
जो मौत खरीदता 
खुद को मिटाकर भी 
औरों के हेतु प्रकाश फैलाता 
उनके ही दीप्त आभा को 
अँधेरी कविता कहा जाता !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' २४ - ०४ - १९८४ 
कोलकाता ५ - ४७ pm 

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

328 .वो कैसी एक आग थी

३२८ 
वो कैसी एक आग थी 
जो हमको जला गयी 
खुद तो चुप ही रहे 
हमको रुला दिया 
हंसने की हर चाह ने 
ओठों को जला दिया 
अच्छी तरह हम जले भी न थे 
तुमने बुझा दिया 
हवाएँ बनी फर्जमंद मेरी 
तूने धुँआ उठा दिया 
हमने किसी की याद में 
देखो जीवन जला दिया 
छुए भी न थे नगमो को तेरे 
अभी कानो ने मेरे 
तूने नगमा ही भुला दिया 
आ s s s लग जा गले 
रात कहीं यूँ ही न ढले 
आ ये हैं बाँहों के घेरे 
लग जा सीने से मेरे 
आ मैं कर दूँ बंद आँखों से आँखे 
आ मैं ढक दूँ ओठों से ओठ 
हो जाओ बस चुप ही चुप 
कहने दो बस धड़कनो को तुम 
खो के भी तुम खो न पाओ 
दूर कभी भी मुझ से न जाओ 
मैं बस यूँ ही जलता रहूँ सदा 
बस तुम करो एक यही दुआ !

सुधीर कुमार ' सवेरा '

गुरुवार, 13 नवंबर 2014

327 .लंबे - लंबे ये कदम

३२७ 
लंबे - लंबे ये कदम 
रखो जरा संभाल के 
खो न जाये कहीं तेरा वजूद 
हर पग उठाओ संभाल के 
अतीत में ढूंढे कहीं 
जो न मिलो कभी 
बनाओ वो तारीख जरा 
खुद अपने ख्याल से 
हर लम्हा शुष्क हो रहा 
यूँ बैठो न उदास से 
फूंको ऐसी जान की 
जर्रा - जर्रा हिल जाये तूफान से 
सोयी तेरी वफ़ा की आग 
सुला दे न मुझको जगा के 
कतरा - कतरा - कतरा - कतरा 
है तुम्हारे लिए 
रखना इसे संभाल के 
हर दर्द है सीने में छुपा 
दस्तक न देना कभी प्यार से 
हम तो जल मरे हैं 
तेरी ही बेवफाई के आग से 
हमको न जिलाना फिर कभी 
अपने वफ़ा के याद से 
दफ़न ही हो जाने दो मुझे 
निकालो न मुझे 
अपने यादों के कब्र से 
कभी भूलेंगे न तुझको हम 
कभी जिएंगे वफ़ा  की याद में 
कभी जल मरेंगे 
बेवफाई की आग में !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' कोलकाता 

मंगलवार, 11 नवंबर 2014

326 .बित्तेभर की घास घनेरे

३२६ 
बित्तेभर की घास घनेरे 
लम्बे - लम्बे पेड़ बहुतेरे 
क्या सिख क्या पठान 
क्या हिन्दू क्या मुसलमान 
हुस्न की आग सबको जलाती 
दौलत की प्यास सबको भरकाती 
कोई बैठा है लेकर पेड़ की छाँव
कोई बैठा लिए कहीं कोने में ठाँव 
हर को एक ही दर्द है 
हर को एक ही जलन है 
कैसी ये सबको 
जवानी की आग लगी है 
बुझाए भी बुझती नहीं है 
जिसे कोई नहीं मिला 
वो सिर्फ देखा किया 
सामने शांत तरंग रहित तालाब 
चारों ओर बेंच पर बैठे 
जल रहे हैं एक साथ दो अलाव 
देखने वालों के दिल में हलचल 
तालाब है बिलकुल शांत 
तालाब को ये चाह नहीं 
किनारा उससे पूरा सटा रहे 
पर तपते दो जिस्म 
चाहते नहीं बीच में कोई अलगाव 
नादान उम्र की ये नादानियां 
समझते हैं ये जिसे समझदारी 
मालूम नहीं इन्हे ये है कितनी बड़ी बेबकूफियां 
फतिंगे की ये मजबूरियां  भला किसको है पता 
शमा से उसको प्यार है 
बस यही उसकी खता है !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' कोलकाता ५ - ३० pm  1984

सोमवार, 10 नवंबर 2014

325 .जवानो के जवानी का जवाब नहीं

३२५ 
जवानो के जवानी का जवाब  नहीं 
क्या - क्या पीते हैं इसका हिसाब नहीं 
जहर भी है और जाम भी है 
पीने को सुबह और शाम भी है 
दिन दुपहरिया रात भी है 
पी - पी कर मद के प्याले मदहोश हैं 
ख़रीदे हुए गम से गमगीन होकर 
अब कहते हैं गम गलत करते हैं 
दौलत और जवानी 
एक आग एक नादानी 
हुस्न और जाम 
एक तलवार दूजा धार 
एक जहर एक साँप 
सुबह और शाम 
जाम ही जाम 
क्यों नहीं लेते सभी 
राम का नाम 
ये है विक्टोरिया मेमोरियल हाउस 
जहाँ बुझती नहीं कभी भी किसी की प्यास 
एक को दौलत की चाह 
दूसरे की बुझी जवानी की प्यास 
नाम ही नाम 
हर घड़ी हर साँस 
लेते हैं सभी बस 
दौलत और हुस्न का जाम 
जो नहीं ले पाते हैं 
घुट - घुट कर मर जाते हैं 
राम राम राम !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' २९ - ०४ - १९८४ कोलकाता  
४ - ४० pm 

शनिवार, 8 नवंबर 2014

324 .पाँव तेरे पंक में

३२४ 
पाँव तेरे पंक में 
मुख पे म्लान है 
तुम दोस्त नहीं 
जो नसीहत दे सकता 
तुम अनुज नहीं 
जो आज्ञा दे सकता 
कुछ ऊपर हो इससे 
दिल तेरा जलता है 
फफोले मेरे फूटते हैं 
अरमान तेरे उजड़ते हैं 
आशियाँ मेरे वीरान होते हैं 
ओठों से तेरे मुस्कान छीन गयी 
उदास हैं नजरे मेरी 
जिंदगी तूने जीना न जाना
खुद पे जो हँसना न आया 
मैं भी गुजरा हूँ 
किसी अँधेरे दल - दल से 
क्या हुआ जो कोई अपना न हुआ 
पराये इस संसार में 
जब लहू भी अपना न हुआ 
सोंच कर वृथा में 
जान क्यों अपना दें 
सूर्य ने कब अँधेरा किया 
चाँद ने कब सुबह दिया 
जिंदगी भी अपनी मांगी न थी 
दिल में कोई हसरत न थी 
सुबह हो शाम हो 
जिंदगी यूँ ही तमाम हो !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' २० - ०४ - १९८४ 
कोलकाता ११ - १० am