सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

232 . उसे चाहे जो कह लो


232 .

उसे चाहे जो कह लो 
जन्म से पूर्व ही 
तेरे सांसों से 
जो अभिशप्त हो गया हो 
पृथ्वी पर आते ही 
जिसे खुला आकाश मिला 
फुट पाथों का सेज मिला 
उसे चाहे जो कह लो 
आँख खोलते ही 
जिसे दुत्कार मिला सुखी छाती से 
पेट भी न भरा 
जन्म के प्रथम प्रहर में 
जिसने सिर्फ 
भूख ही जाना 
खूब शोर मचाया 
पर कौन सुना ?
उसे चाहे जो कह लो 
घुटनों चलते ही 
पैरों का ठोकर मिला 
मुंह खोलते ही 
गाली और फटकार मिला 
उसे चाहे जो कह लो 
मानवता के नाम पर 
जिसे हैवानियत का पाठ मिला 
तेरे सांसों में उसे 
सांपों का फुफकार मिला 
तेरे कुत्ते मांस खाते रहे 
उसे मांर भी न मिला 
नहाना वो क्या जाने 
कपड़ा बदलना वो क्या जाने 
तन ढंकने को जिसे 
बित्ता भर वस्त्र न मिला 
तुम अन्दर 
हीटर तापते रहे 
वो बाहर 
थर - थर कांपता रहा 
मौत की दुआ माँगता रहा 
पर जिन्दगी 
उसकी दिलरुबा थी 
कैसे इतनी आसानी से 
भला साथ छोड़ देती 
तुम्हारे कुत्ते 
रहे कारों में घूमते 
उसे स्लेट भी न मिला 
ज्यों - ज्यों उसके 
नेत्र खुलते गए 
तेरे समाज का 
पैशाचिक लीला देखता रहा 
माँ को 
महाजन के हाथों 
बिकते और 
धमकियाँ खाते देखते रहा 
अब वो बड़ा हो गया है 
तूने तेरे समाज ने 
जहर पिला - पिला कर उसे 
सोंचो क्या बना दिया ?
पर तूँ सब कुछ पाकर 
जिसे खो चुका है 
जिसने तेरा 
सारा मूल्य ही 
ग्रस लिया है 
वो टूटपुजिया 
सब कुछ खोकर 
उस अमृत कण को 
पा लिया है 
जिसकी कीमत 
न तूँ न तेरा समाज 
खुद की कीमत लगाकर भी 
चूका नहीं सकता 
सब कुछ खोकर 
उसे 
इंसानियत 
ईमानदारी , वफ़ादारी 
पाक साफ नेक दिल 
मेहनतकश शारीर मिला है 
जिसके जन्म से ही 
जन्म जिसका 
तूने छीन लिया , बस दुआ कर 
उन मुर्दों में 
कभी चेतना न आये 
वर्ना जिन्हें तूँ मिटा रहा 
आशियाँ जिनका 
उजाड़ रहा है 
वो मिट्टी के पुतले 
मिट्टी में ही रहे 
पर नहीं 
शायद अब 
यह असंभव 
उसने अभी 
सुगबुगाना ही 
शुरू किया है 
जिंदा लाशों में 
रक्त का 
संचार बढ़ा है 
इतने सारे पिन चुभे थे 
जिस्म के हर भाग से 
खून रिस रहा था 
पर एक नाजुक अंग 
इस बार 
सह न सका तेरा वार 
जब उसके आत्मा को छू गया 
अब वो छोड़ेगा नहीं 
वो जान गया है 
आशा जिसकी 
वो ही नहीं 
उसके पूर्वज भी 
लगाये हुए थे 
वह दया से मिल जाएगी 
मात्र एक 
मृग तृष्णा थी 
हक़ कोई 
किसीका देता नहीं 
आगे बढ़कर 
हाथों को मरोड़ कर 
फिर भी न माने 
तो नाक दबाकर 
ले लिया जाता है 
बस एक बार 
सिर्फ एक बार 
उसे जागने भर की देर है 
और समय वो 
दूर नहीं है 
तेरे मौज मस्ती के 
दिन सारे पुरे हो गए 
तेरे मान्यताओं का खून 
आनेवाले कल में 
कोलतार के सड़क पर 
फैला होगा 
तूँ चीखता होगा 
छटपटाता होगा 
वो स्वर्णिम विहान 
आनेवाला है 
बहुत जल्द बहुत जल्द 
बस तूँ तैयार रह 
खेलने को होली 
तभी हर ओर होगी होली
समानता की बोली 
उसे चाहे तुम जो कह लो !

सुधीर कुमार " सवेरा "       21-03-1984
चित्र गूगल के सौजन्य से 

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