शनिवार, 17 नवंबर 2012

177 . इस तन्हाई का ये तन्हा

177 . 

इस तन्हाई का ये तन्हा 
लगता है इक अपना 
जीवन में है एक 
बस उम्मिदों का सपना 
बहुत चाहता हूँ कहना 
कैसे कहूँ 
जब एहसास तुम्हारी होती है 
तुम लगती हो बिलकुल अपना 
ऐसे लगता है जैसे 
छू लिए हों तुझे 
खोता हूँ जब याद में तेरे 
होती हो उस वक्त बाहों में मेरे 
चूम लेता हूँ तुझको किस कदर 
कैसे कहूँ 
होती हो कितने पास तुम 
होकर भी दूर इतनी 
ये कैसे कहूँ 
साँस से साँस टकरा जाती है 
दो धड़कने भी एक हो जाती है 
फिज़ा भी कैसे बहक जाती है 
ये कैसे कहूँ 
बह रही है बयार 
या तेरे बालों की खुशबु की है महक !

सुधीर कुमार ' सवेरा '   23-10-1980 
चित्र गूगल के सौजन्य से  

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