शनिवार, 1 सितंबर 2012

145 . लोग आ रहे हैं जा रहे हैं

145 .

लोग आ रहे हैं जा रहे हैं 
मैं जिन्दगी की राह में 
तन्हाँ फाँके खा रहा हूँ 
लोग जी रहे हैं आशा में 
पर मैं प्यासा ही खड़ा हूँ 
तेरी आशा लिए निराशा के धुंध में 
एक नजर लोग देख लेते हैं 
फिर खो जाते हैं जिन्दगी के भीड़ में 
उनको पहचाना सा चेहरा लगता हूँ 
पर क्यों करें खोज 
रहा नहीं जब कुछ मेरे पास में 
जब तक कुछ था उनका साथ रहा 
पर अब क्यों जियें वो मेरी चाह में 
बहार किसे पसंद नहीं
फिर कोई क्यों आये मेरे पतझर से जीवन में 
ठोकर और दुत्त्कार 
यही मिला है जीवन को वरदान में 
इन्कार और फटकार से 
हो गयी है मित्रता 
लोग आ रहे हैं जा रहे हैं 
मैं खा रहा हूँ फाँके 
तन्हा जिन्दगी के राह में !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 18-06-1980 
चित्र गूगल के सौजन्य से  

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