सोमवार, 27 अगस्त 2012

132 . जब दो मदमस्त नजरें मिलती हैं

132 .

जब दो मदमस्त नजरें मिलती हैं 
तो प्याले की तरह 
कुछ पीना चाहती हैं 
और पिलाना चाहती हैं 
दिल में दोनों के 
कुछ उठता है 
कुछ कहने को 
कुछ सुनने को 
पर ऐसा होता कम है 
केवल रहस्य रहता है 
इसीका मुझको गम है 
कभी बात बढती नहीं है 
ना जाने क्यों 
उनके ओंठ हिलते नहीं हैं 
घुट - घुट कर रह जाता हूँ 
कुछ न उन से कह पाता हूँ 
तसल्ली के मलहम से 
जिगर का जख्म भर लेता हूँ 
मैं ही नहीं बहुत सारे 
भटक रहे हैं दर - दर 
जो हैं इश्क के मारे !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  27-03-1980 
चित्र गूगल के सौजन्य से  

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