रविवार, 26 अगस्त 2012

131 . जब आकाश आँगन खोले - खोले

131 . 

जब आकाश आँगन खोले - खोले 
पवन झकोरे 
और झुमका डोले हौले - हौले 
बागों में कोयल कूक  - कूक  कर 
कुछ - कुछ बोले - बोले 
लोचों से पायल बोले झुन - झुन 
रुत ये सुहानी बोल रही 
कुछ सुन - सुन 
बन के भौंरा 
आज कली का मकरंद चुसुंगा 
आज तुझे मैं 
सच्चा सुख दिखलाऊंगा 
क्या है जग की रीत 
तुझे आज बताऊंगा
चाँद से मुखरे पर 
है नागिन सी लटें बिखरी 
आ जाओ अब यहाँ 
ये हैं बाहों के घेरे 
कुचों पर तेरे केश जो बिखरे 
लगती हो पूरी देव प्रतिमा 
पुजूंगा तुझको नित्य सवेरे 
तेरे जो ये हैं केश घनेरे 
छाये हों जैसे घटा घोर अँधेरे 
तेरी ये काली रात से भी काली 
कजरारे तेरे नैना 
छायी है जिसपे रैना 
तेरी ये पंखुरियों सी ओंठ 
छेड़ रही मधुमुस्कान 
जी चाहता है करलूं 
झट से इसका रसपान !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 11-04-1980  

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