मंगलवार, 7 अगस्त 2012

116 . शुरू करूँ या न करूँ

११६ .

शुरू करूँ या न करूँ
करूँ तो कहाँ से करूँ
कितनी ही बार सोंचा
तुम्हें एक पत्र लिखूं
ढेर सी बातें इक्कठी हो गयी है
कहने को क्या - क्या सोंचुं
सामने रखने को तेरे
जिन्दगी का एक बड़ा टुकड़ा है
ना जाने कभी क्यों
तुमसे कोई शिकायत थी
फिर लगता है अब
मुझे तुमसे नहीं अपने से शिकायत थी
जिन्दगी के उस टुकड़े को
कागज़ पे उतारूँ
या न उतारूँ
जो गुजरी है
तेरे रुसवाई के बाद
तुम तक पहुंचाऊं या न पहुंचाऊं
जिन्दगी का जो हिस्सा
तुम से अनछुआ है
तुम तक पहुंचे
तो शिकायतनामा न कहना
कचरे के डब्बे में डालने से पहले
पढने से पहले फाड़ मत देना
पढ़ कर इसे प्रेम पत्र भी न कहना
नाम देने की
इतनी ही गर इक्षा हो
तो पढ़ कर हँस देना
और फिर मुस्कुराकर फाड़ देना
लिखने को जब तैयार था
तुम हो निकट ऐसा लगा
तेरा मन काफी आत्मीय लगा
तेरे चेहरे की एक - एक रेखा
अपना चिर परिचित लगा
मैं जानता हूँ तुम कौन हो
मैं जानता हूँ तुम कहाँ हो
जानता हूँ तेरा पता ठिकाना
यह भी देखता हूँ
हर पल क्या करती हो
मुझे सब मालुम है
पर तुम्हें तो कुछ भी मालुम नहीं है
शायद मैं कौन हूँ ?
क्या करता रहता हूँ
कहाँ पर रहता हूँ
पता ठिकाना क्या है मेरा
फिर भी मैं कुछ लिखकर
तुम तक पहुंचाता हूँ
मतलब यह नहीं इसका
साथ मेरे तुम चल दो
बस देखती रहो
पल - पल मुझे घिसटते हुए
मर - मर कर जीते हुए
करना ही कुछ चाहो
या देना ही कुछ चाहो
मुस्कराहट एक हलकी
नयी सी दे देना
ताकि छुट जाऊं
मरने जीने की इस झंझट से
और तेरे मन और कन्धों के
बोझ से टल जाऊं
जब तक जिन्दा हूँ
तब तक शायद
तेरे दर्द को
अनचाहे बढ़ाता रहूँ
बस चाहता हूँ
एक मुस्कराहट दे दो
मुझे अपनी जिन्दगी से
दूर बहत दूर कर दो
बस इतना मैं जानता हूँ
सपनों में सोते
दिन में जागते
हर पल दिल में
मन मंदिर में बसा
एक भले से चेहरे की
याद सताती है
हर पल दिल के निगाहों से
उससे मुलाकात होती है
सदा जिसके ओठों पे
मंद मुस्कराहट रहती है
आँखें जिसकी मुक्त हँसती हैं
देखता रहता हूँ अपलक मैं
क्या आँखें भी हँस सकती हैं
एक चुम्बकीय प्रभाव से
खिंचा सा जाता हूँ
जिन्दगी के उलझनों में
जब कभी - कभी है इंसान डूबता
जीने के लिए ढूंढ़ लेता है
एक तिनके का सहारा
अब एक तिनका ही हो तुम
जो हर बार डूबने से है बचा लेता
मेरी जिन्दगी
न तो फूलों का हार है
न हीरे मोती मणि का
बस यह
काँटों का एक बाग़ है
झार झंखारों से भरी हुई
जिन्दगी की हर शाम है
ऐसा लगता है
था सब संजरा संवरा
उखार कर किसी ने
सब कुछ इधर - उधर फ़ेंक दिया
शाम से जिन्दगी को सजाये हुए
जी रहा है यह ' सवेरा '
बार - बार जिन्दगी के
बिखरे हुए हर ईंट को
चुन - चुन कर इकठ्ठा करना
सजाना और गारा लगाना
कच्ची दीवारों को
दृढ होने की आशा करना
बन कर रह गया है
जिन्दगी का एक फ़साना
मेरी जिन्दगी
एक खुली किताब है
जिसे कभी जूनियर ने पढ़ा
और आदर्श मान लिया
कभी किसी सिनिअर ने पढ़ा
और सहानभूति जता गया
बार - बार काई से फिसल
किचर में धंसता रहा हूँ मैं
बार - बार तन मन पे
चोट खाता रहा हूँ मैं
शारीर की आँखों को नजर आता नहीं जो
मन की आँखों से देख लेता हूँ मैं
हर दर्द का एहसास 
सिने में दाब लेता हूँ मैं
दिल में ग़मों का सैलाब है
पर ख़ुशी इस बात का है
ओठों पे अपनी
किसी से मांगी हुई हँसी नहीं है
फिर रास्ता तलाशने लगता हूँ मैं
हर घर से रास्ता निकलकर
शहरों के भीड़ में खो जाता है
मेरा हर रास्ता न जाने क्यों
तुझ तक ही पहुँचता है
पर तुझ तक पहुँचने के रास्तों पर
ना जाने उठ पाते नहीं कदम मेरे
हार कर एक गहरी उदासी
छा जाती है मेरे मन में
मन का कुछ चाहना
क्या गलत है
यातनाओं से भरे
जिन्दगी के बिच
गर ये गलत है
तो फिर सही क्या है
मानस पटल पर मेरे
आकृति एक रेखांकित हो जाती है
सुध बुध खोकर उसके साथ हो जाता हूँ
जिन्दगी का ये पल
खुद से जुदा न कर पाता हूँ
पर एक शिकायत भी है
क्यों आ जाती हो हर पल में
हर इस पल के
छाँव के बाद
जुदाई की जेठ की दोपहरी
उसकी जलन
जिन्दगी को जलाने लगती है
सोंच कर देख लो
जिन्दगी तब कितनी
दुःखदायी लगने लगती है
ऐसे ही पूरी जिन्दगी बीते
तो अभ्यस्त हो जाऊँगा
पल - पल भर का
तेरे यादों का छाँव
कमजोर बना जाता है
तेरे मिलन और जुदाई के बिच
मन तरपता रहेगा
शरीर झुलसता रहेगा
सांस थमता रहेगा
तुम्हें क्या - क्या बताऊँ
हमपे क्या सब गुजरता रहता !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' १५-०१-१९८४
चित्र गूगल के सौजन्य से 

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