रविवार, 5 अगस्त 2012

113 . मैं जब तुम से मिला

113 .

मैं जब तुम से मिला
रोम - रोम मेरा कंपित हुआ
एक नवचेतना का
अन्दर मेरे संचार हुआ
आत्मा अमर है 

चोले बदलते रहते हैं
जन्म - जन्मान्तर का साथी
मुझको लगा इस जन्म में
तेरे रूप में मुझे आ मिला
मेरा पवित्र अनछुआ कुसुम सा
तन मन आत्मा पर
तेरा पूरा अधिकार हुआ
बस मैं तो
एक जीवन से दुसरे जीवन में
रूपांतरित होता रहा
केवल तेरे लिए ही मैंने
अपना शरीर असंपृक्त अस्पर्श्य रखा
पहली बार मानव रूप में
तेरे ही कमनीय काया का स्पर्श हुआ
तुमने कहा की तुम
पूरी की पूरी हमारी हो
अन्यत्र कहीं तेरा लक्ष्य नहीं
मुझमे विलीन हो जाओगी
या नश्वर शरीर त्याग जाओगी
यही तेरी उत्कट अभिलाषा थी
मैंने तेरी प्रशंसा
कभी तेरे सामने न की
पर कितनी स्त्रियाँ हैं
जो तुझ जैसी गरिमा को प्राप्त हुई
अतीत में मेरे भावों से
जान सब कुछ जाती थी
आज तेरे कारण
हाल अपना ये हुआ
और देख कर तुम भी
आँख अपना चुरा जाती हो
किस सम्बन्ध से
तुझे मैं नाम दूँ
कशमोकश में पर गया हूँ
इतनी आत्मीय हो तुम
इतनी पास आकर दूर हुई तुम
सीमा जहाँ सारी
ख़त्म हो जाती है
फिर भी मैं शंशय में हूँ
नाम तेरा मैं क्या दूँ ?
आखिर तुझसे मेरा क्या रिश्ता है
जहाँ हर रिश्ते से भी आगे
 तेरा एक सम्बन्ध है
और इस रिश्ते का कोई नाम नहीं है !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' १६-०१-१९८४
चित्र गूगल के सौजन्य से
 

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