बुधवार, 25 जुलाई 2012

97 . बेदर्द बेरहम ज़माने में

97.

बेदर्द बेरहम ज़माने में 
अपना कोई सहारा नहीं 
गम को बना लिया साथी अपना 
जिन्दगी के सफ़र में 
इसके सिवा कोई चारा नहीं 
बहारों से भरी इस दुनियाँ में 
उजड़े सभी दिल हैं 
फूलों के इन बागों में 
काँटे ही ज्यादा बिखरे हैं 
दिल की आग बुझाने में 
आँसू भी बहुत बर्बाद किये 
हँसने की हर कोशिश में 
होंठ भी नाकाम रहे 
हर सूरज निकलता है 
मुसीबतों का पैगाम लेकर 
रातें गुजारनी होती है 
जख्मों को गिन - गिन कर 
ये कैसा दस्तूर है 
इस दुनियाँ का 
अमृत भी बनता 
क्षण में विष का प्याला 
आँखों में 
आंसुओं के बदले
छलकते हैं 
खून की बूँदें !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  19-05-1983 समस्तीपुर  

4 टिप्‍पणियां:

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

मंगलवार 18/03/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी एक नज़र देखें
धन्यवाद .... आभार ....

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुंदर ।

आशीष अवस्थी ने कहा…

बहुत हि बढ़िया सुधीर भाई , धन्यवाद व स्वागत हैं मेरे ब्लॉग पर
नया प्रकाशन -: बुद्धिवर्धक कहानियाँ - ( ~ अतिथि-यज्ञ ~ ) - { Inspiring stories part - 2 }
बीता प्रकाशन -: होली गीत - { रंगों का महत्व }

dr.mahendrag ने कहा…

, हर सूरज निकलता है
मुसीबतों का पैगाम लेकर
रातें गुजारनी होती है
जख्मों को गिन - गिन कर
सुन्दर कृति ,सदियों से यह दस्तूर चल रहा है ,चलता भी रहेगा किसी शायर ने कहा भी है
कहाँ जीने देता है ये बेमुरब्बत ज़माना हम जी रहे है अपना जनाजा अपने कन्धों पर रख कर