बुधवार, 18 जुलाई 2012

88 .जिन्दगी तेरी डरी हुई है सहमी हुई है

88.

जिन्दगी तेरी डरी हुई है सहमी हुई है 
एक डर है जो पल - पल 
मन को कंपा देता है 
ना जाने कहीं जो राख उड़ जाये 
चिंगारी भभक उठेगी 
सच मेरा कहीं 
मुझी को न खा जाये 
हर बात को बोलता हूँ 
तौल -तौल कर 
हर कदम रखता हूँ 
फूँक - फूँक कर 
फिर भी ये डर मेरे पीछे है 
हर निगाहों को मुझे विश्वास दिलाना है 
मेरे खुद का विश्वास मुझे डरा जाता है 
शायद मैंने सब का विश्वास जीत लिया है 
पर मेरा अपना ही विश्वास मुझे डरा रहा है 
बहुत ही खोखली जिन्दगी है मेरी 
जो सच था उसे झूठ बताना पड़ रहा है 
जो झूठ है उसे सच मानना पड़ रहा है 
हर एक सच हर एक झूठ 
मुझे मिलकर सताते हैं 
सच जो मेरा था उसे न अपना सका 
जो झूठ अब मिला है 
उससे जिन्दगी को न बहला पा रहा 
ना जानें क्यों इतनी हिम्मत होती नहीं मुझको 
जो एक बार चीख पडूँ 
कहूँ लो देखो सच को 
उस दिन मैं आजाद हो जाऊँगा 
ये संत्रास ये नकाब 
मुझको न सता पायेंगे 
ना जाने आयेगा कब वो दिन 
मैं सच को सच झूठ को झूठ कह पाउँगा !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 16-02-1984 
समस्तीपुर 5-00pm 

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