बुधवार, 11 जुलाई 2012

81.भींगे लकड़ी की तरह

81.

भींगे लकड़ी की तरह
सुलग रहा हूँ मैं 
न बुझ रहा हूँ मैं  
न जल रहा हूँ मैं 
फिर जलने के लिए 
कोयला बन रहा हूँ मैं 
जगह से दूर जा सकता 
जग से दूर नहीं जा सकता 
तुझसे बहुत दूर जा सकता 
तेरी यादों से दूर 
जा नहीं सकता 
जुटने से नये रिश्ते  
छुट जाते हैं पुराने रिश्ते 
इन्सान तो वही रहता है 
मुखौटे बदल जाते हैं 
नाम भले भुला दें 
पर यादें रह जाते हैं 
जोड़ ले भले ही 
कोई नया रिश्ता 
पर होता नहीं  
बढ़कर प्यार से कोई रिश्ता 
भूल जाये भले कोई अक्स 
पर एहसास साथ रह जाता है 
तुम सदा खुश रहो 
अपना क्या ठिकाना ?
सारी जिन्दगी ही है 
एक गम का फसाना  
काश मेरा दिल 
जो तुझ सा पत्थर होता 
खाकर चोट इस कदर 
बिखर न जाता 
सँवार ली 
जिस तरह तुने अपनी जिन्दगी 
काश जो मेरी भी होती उस तरह  
रोने के सिवा किस्मत को क्या मिला ?
जिन्दगी को जीने का 
आज तलक न  फुर्सत मिला !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  12-09-1983 समस्तीपुर  

कोई टिप्पणी नहीं: