शनिवार, 28 जुलाई 2012

102 . दो टुक कलेजा हो जाता

102 .

दो टुक कलेजा हो जाता 
जब याद मुझे वो आता 
कितना अपनापन था 
जब आँसू मेरे पोछा करती थी 
मेरे जिस्म के एक खरोंच को भी 
वो जब सह नहीं पाते थे 
एक दिन की दाढ़ी बढ़ जाने से 
आसमान को सिर पर उठा लेते थे 
आज वो वहीं हैं 
चेहरे पे झाड़ - झंखाड़ उग आये हैं 
तिल भर उन्हें अफसोस भी नहीं है 
काश अगर प्यार इसी को कहते हैं 
मैं क्यों न समझ पाता हूँ 
खिलौने से खेलना था उनको 
जी भरने के बाद 
क्या रह गया मुझमें 
तिल - तिल कर क्यों मर रहा हूँ 
क्यों नहीं एक बार में मर पाता हूँ 
क्या कसक इसकी भी है उनको 
जो दिल न होता मुझको 
कोई गम न होता खुद को 
हसीनों का यही दस्तूर है 
ले कर आशिकों की जान 
जश्ने महफिल मनाया करते हैं !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  02-02-1984

कोई टिप्पणी नहीं: