गुरुवार, 8 मार्च 2012

44 . कहाँ गई मेरे मन की शान्ति


44-

कहाँ गई मेरे मन की शान्ति 
क्यों है ऐसा मेरा मन ?
 दोलत नैया की भांति 
डगर - डगर पे 
ठहर - ठहर कर 
भंग हो जाती है मेरी शान्ति 
एक झंझावत सा उठता है 
एक तूफान सा गुजरता है 
बेदर्दी से मन को मेरे 
मथ कर गुजरता है 
' माँ ' शरण में भी आकर तेरे 
जो न शांति मन में मेरे भरे 
जाऊं कहाँ मैं फिर किसके द्वारे 
पहले ही तुने मेरे ठौर कहीं न हैं छोड़े
फिर मैं क्या ' माँ ' तेरी यह माया 
हर रिश्ते पहले ही तुने हैं तोड़े 
आया शरण में तेरी मैया 
फिर भी क्यों न तू मेरे रिश्ते जोड़े 
देर हो जो इतनी तेरे घर में 
यह भी तो है अंधेर तेरे घर में 
माँ जो तू सच्ची मेरी मैया 
जल्दी मिला दे अपनों की नैया  
घर से गया न कोई 
खाली हाथ है 
तू दयामई करुनामई मैया है मोई 
देख शरण में तेरे आया कोई 
जो तू न अब जागी 
तो निशित रूप से मुझको खोई  
जाग - जाग - जाग जा 
दीप शिखा जला जा 
दूर तिमिर को कर जा
भयावह लपटों से 
त्रान मुझको दिला जा 
हे जग्गनमई जगदम्बा माता 
आकर अब तो दरश दिखा जा 
अन्यथा कर जाऊँगा कुछ अनर्थ 
देना न तब तुम मुझको दोष व्यर्थ 
जीवन का अब नहीं कोई अर्थ 
   कर चुकी जब तुम सब अर्थ की व्यर्थ 
फिर कहाँ रह गया जीवन का कोई अर्थ ?


सुधीर कुमार ' सवेरा '            08-12-1983

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