रविवार, 19 फ़रवरी 2012

28. रूप , रस और गंध का


28-

रूप , रस और गंध का 
है आधिपत्य हर जीवों पर 
हम मानव का कथन ही क्या 
इन तीनो की ओर
हर कोई खिंचा चला जाता 
होगा क्या भविष्य सोंच नहीं   
अनायास ही उस ओर 
अपने को आकर्षित है पाता
शमा के रूप पर परवाना है देखो कैसा फिदा 
भौंरा अपने बंदिपन से बेखबर
देखो जा रहा कमल के अन्दर 
रूप , रस का ऐसा ही है आकर्षण 
कारण जिसके वो कर जाता 
    सहर्ष ही मृत्यु का आलिंगन 
 तभी पाता सुख चैन 
दे देता जब जीवन भेंट 
रस की खबर मिल जाती है चींटी को 
  पर देखो तो देख रहा 
समझ रहा लिपट - लिपट कर 
मृत्यु का आलिंगन कर रहा 
गंध की भी है 
देखो कैसी तृष्णा 
मृग बन - बन भटक रहा 
गंध के पीछे दौड़ रहा 
सुध नहीं है उसे 
   खोजे समझे है गंध कहाँ ?
क्या समझा पायेगा कोई उसे ?
है उसी तरह प्रेम 
हम में यहाँ वहां 
खोजोगे तो पावोगे 
भ्रमोगे तो भटकोगे 
है हर जिव में जहां - तहां 
  है सुख कहाँ ? 
किसी वस्तु विशेष में नहीं 
तो पाओगे कहाँ ?
 सुख का करो साक्षात्कार 
अनुभव में है वो यहाँ - वहां 
 तुम जानते हो अपने को 
क्या पहचानते हो अपने को  ?
क्या तुम एक हो ?
एक हो कर तुम दो हो 
 आसुरी और इश्वरी 
ये दोनों पहलु है तुम में 
उठते हैं दोनों ही विचार 
तुम्हारे ही मन में 
करो विचार उसका अपने बुद्धि से   
उलटो इतिहास विचार करके 
हुआ था क्या ?
उनको ये आचार करके 
हो जाएगा तब तुमको 
अछे और बुरे का ज्ञान 
अपने और दूसरों का मान 
प्यार और सुख का भान
तुम कुछ गलत करते हो 
उसका कारण अनजाने में भी तुम हो   
प्रथम अपने को जानो 
मन , बुद्धि और आत्मा क्या है ?  
    उनको समझो और पहचानो 
मन का कहना 
बुद्धि की कसौटी पर तौलो 
बुद्धि का कहना 
आत्मा से जानो 
अब बनी बात जो 
    उसको आत्मसात करो 
कभी नहीं दुःख यार पाओगे 
कर विचार इन बातों पे 
रहो उन्मुक्त विहार करते 
अपनी ये सेवा जान 
करता हूँ अब पूर्णविराम !

 
 सुधीर कुमार ' सवेरा '          १४-०३-१९८० 

कोई टिप्पणी नहीं: